Hello Students and Teachers. Are you searching for the Solutions of Bihar Board Class 9 Hindi Chapter 12 ? If yes then you have come to the right place. On this page, we have presented you with the Solutions of Chapter 12: शिक्षा में हेर-फेर
विषय | हिंदी |
पाठ | 12: शिक्षा में हेर-फेर (शिक्षाशास्त्र) |
लेखक | रवीन्द्रनाथ ठाकुर |
वर्ग | 9th |
भाग | गोधलि भाग-1, गद्य |
Category | Bihar Board Class 9 Solutions |
Bihar Board Class 9 Hindi Solutions गद्य Chapter 12
शिक्षा में हेर-फेर
प्रश्न 1.
बच्चों के मन की वृद्धि के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का कथन है कि जो कम-से-कम जरूरी है वहीं तक शिक्षा को सीमित किया गया तो बच्चों के मन की वृद्धि नहीं हो सकेगी। आवश्यक शिक्षा के साथ स्वाधीनता के पाठ को पिलाना होगा, अन्यथा बच्चे की चेतना का विकास नहीं होगा।
प्रश्न 2.
आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि में वह सदा बालक ही रहेगा। कैसे?
उत्तर–
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यहाँ बड़े ही सूक्ष्म दृष्टि से समझाने का प्रयास किया है कि आवश्यक शिक्षा के साथ-साथ स्वाधीनता का पाठ भी सिखाया जाना चाहिए वरना आयु बढ़ने पर भी बुद्धि की दृष्टि से वह सदा बालक ही रहेंगा!
प्रश्न 3.
बच्चों के हाथ में यदि कोई मनोरंजन की पुस्तक दिखाई पड़ी तो वह फौरन क्यों छीन ली जाती है? इसका क्या परिणाम होता है?
उत्तर-
उपयुक्त प्रश्न के आलोक में विद्वान साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बताया है कि हमारे बच्चों को व्याकरण, शब्दकोष, भूगोल के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता-उनके भाग्य में अन्य पुस्तकें नहीं हैं। दूसरे देश के बालक जिस आयु में अपने नये दाँतों से बड़े आनन्द के साथ गन्ने चबाते हैं, उसी आयु में हमारे बच्चे स्कूल की बेंच पर अपनी पतली टाँगों को हिलाते हुए मास्टर के बेंत हजम करते हैं
और उसके साथ उन्हें कड़वी गालियों के अलावा दूसरा कोई मसाला भी नहीं मिलता।
साहित्यकार ने मनोवैज्ञानिक कारण’ बताते हुए कहा है कि इससे उनकी मानसिक पाचन शक्ति का ह्यस होता है। जिस तरह भारत की संतानों का शरीर उपर्युक्त आहार और खेल-कुद के अभाव से कमजोर रह जाता है उसी तरह उनके मन का पाकाशय भी अपरिणत रह जाता है।
प्रश्न 4.
“हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनन्द का स्थान नहीं होता।” आपकी समझ से इसकी क्या वजह हो सकती है?
उत्तर-
मेरी समझ से साहित्यकार ने बड़ा ही विलक्षण उदाहरण देते हुए बताया है कि-हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन का ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है। वैसे ही एक ‘शिक्षा पुस्तक’ को अच्दी तरह पचाने के लिए बहुत-सी पाठ्य सामग्री की सहायता जरूरी है। आनन्द के साथ पढ़ते रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है, सहज स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति, धारणा-शक्ति और चिन्ता-शक्ति भी सबल होती है।
प्रश्न 5.
हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत क्यों नहीं होती?
उत्तर-
कवि मनीषी रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उपर्युक्त प्रश्न के आलोक में कहा है क – अंग्रेजी विदेशी भाषा है। शब्द विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं। भावपक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी बात हैं। शरू से आखिर तक सभी चीजें अपरिचित होती है, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया हुआ अन्न निगलने से होता है। शायद बच्चों को किसी ‘रीडर’ में Hay-making का वर्णन है। अंग्रेज बालकों के लिए यह एक सुपरिचित चीज है और उन्हें इस वर्णन में आनन्द मिलता है। Snowball से खेलते हुए Charlie का Katie से कैसे झगड़ा आ यह भी अंग्रेज बच्चे के लिए कतहलजनक घटना है। लेकिन हमारे बच्चे जब विदेशी भाषा में यह सब पढ़ते हैं तब उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होता अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रह जाता है।
प्रश्न 6.
अंग्रेजी भाषा और हमारी हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर-
साहित्यकार ने उपर्युक्त प्रश्न के आलोक में गहरी अनुभूति का अध्ययन कर हमें बताया है कि अंग्रेजी और हिन्दी में सामंजस्य क्यों नहीं है। उन्होंने कहा है कि ऐसे शिक्षक हमें शिक्षा देते हैं जो अंग्रेजी भाषा, भाव, आचार, व्यवहार, साहित्य-किसी से भी परिचित होते हैं और उन्हें के हाथों हमारा अंग्रेजी के साथ प्रथम परिचय होता है वे न तो स्वदेशी भाषा अच्दी तरह जानते हैं, न अंग्रेजी। वे बच्चों को पढ़ाने की तुलना में मन बहलाते हैं, वे इस कार्य में पूरी तरह सफल होते हैं।
साहित्यकार का कथन है कि यदि बालक केवल एक ही संस्कृत में रहते तो उनकी वाल्य प्रकृति को तृप्ति मिलती। लेकिन वे अंग्रेजी पढ़ने के प्रयास में न सीखते हैं, न खेलते हैं, प्रकृति के सत्यराज में प्रवेश के लिए उन्हें अवकाश ही नहीं मिलता,
साहित्य के कल्पना-राज्य का द्वार उनके लिए अवरूद्ध रह जाता है।
लेखक के विदेशी भाषा के व्याकरण और शब्दकोश में; जिसमें जीवन नहीं, आनन्द नहीं, अवकाश या नवीनता नहीं, जहाँ हिलने-डुलने का स्थान नहीं, ऐसी शिक्षा की शुष्क, कठोर, संकीर्णता में बालक कमी मानसिक शक्ति; चित्र का प्रसार या चरित्र की बलिष्ठता प्राप्त कर सकता है ? लेखक ने अंग्रेजी भाषा और हिन्दी में सामंजस्य नहीं होने के अनेक कारणों को गिनाया है जो सटीक है।
प्रश्न 7.
लेखक के अनुसार प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए क्या आवश्यक हैं?
उत्तर-
लेखक ने प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए जो उपाय सुझाया है वह सारगर्भित है। उन्होंने कहा है कि यदि बच्चों को मनुष्य बनाना है तो यह क्रिया बाल्यकाल से ही आरंभ हो जानी चाहिए। शैशव से ही केवल स्मरण-शक्ति पर बल न देकर उसके साथ-ही-साथ चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति को स्वाधीन रूप से परिचालित करने का उन्हें अवसर भी दिया जाना चाहिए।
हगारी नीरस शिक्षा में जीवन का बहुमूल्य समय व्यर्थ हो जाता है। हम बाल्यावस्था से कैशोर्य में और कैशोर्य से यौवन में प्रवेश करते हैं शुष्क ज्ञापन का बोझ लेकर। सरस्वती के साम्राज्य में हम मजदूरी ही करते रहते हैं, मनुष्यत्व का विकास नहीं होता। प्रकृति के स्वराज्य में पहुँचने के लिए लेखकाने रहन-सहन, संस्कृति, आवार-विचार, घर-गृहस्थी इत्यादि बातों का समुचित ज्ञान होना आवश्यक बताया है तभी हम प्रकृति के स्वराज्य में पहुँच कर आनन्द ले सकते हैं अन्यथा ऐसे ही भटकते रहेंगे और सरस्वती के साम्राज्य में भी मजदूरी ही करते रहेंगे।
प्रश्न 8.
जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए क्या आवश्यक है?
उत्तर-
साहित्यकार ने बड़ा ही सुन्दर और सटीक उदाहरण देते हुए बताया है कि-बाल्यकाल से ही यदि भाषा-शिक्षा के साथ भाव-शिक्षा की भी व्यवस्था हो और भाव के साथ समस्त जीवन-यात्रा नियमित हो, तभी हमारे जीवन में यथार्थ सामंजस्य स्थापित हो सकता है। हमारा व्यवहार तभी सहज मानवीय व्यवहार हो सकता है और प्रत्येक विषय में उचित परिमाण की रक्षा हो सकती है। जिस भाव से हम शिक्षा ग्रहण करते हैं उसके अनुकूल हमारी शिक्षा नहीं है। हमारे समाज की सारी सभ्यता, संस्कृति उस शिक्षा में नहीं है। चिंता-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक हैं।
इसलिए जब तक हमारी शिक्षा में उच्च आदर्श, जीवन के कार्यकलाप, आकाश और पृथ्वी, निर्मल प्रभात और सुंदर संध्या, परिपूर्ण खेत और देशलक्ष्मी स्त्रोतस्विनी का संगीत उस साहित्य में ध्वनित नहीं होगा तब तक जीवन-यात्रा सफल संपन्न नहीं होगी।
प्रश्न 9.
रीतिमय शिक्षा का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
साहित्यकार ने बड़े ही रोचक ढंग से रीतिमय शिक्षा के संबंध में बताया है कि-संग्रहणीय वस्तु हाथ आते ही उसका उपयोग जानना, उसका प्रकृत परिचय प्राप्त करना और जीवन के साथ-ही-साथ आश्रय स्थल बनाते जाना-यही है रीतिमय शिक्षा।
इसलिए यदि बच्चों को मनुष्य बनाना है तो केवल स्मरण-शक्ति पर बल न देकर उसके साथ-ही-साथ चिंतन-शक्ति और कलपना-शक्ति को स्वाधीन रूप से परिचालित करने का भी अवसर उन्हें दिया जाना चाहिए।
प्रश्न 10.
शिक्षा और जीवन एक-दूसरे का परिहास किन परिस्थितियों में करते हैं?
उत्तर-
लेखक ने उपर्युक्त प्रश्न के संदर्भ में हमें बहुत ही बहुमूल्य तथ्यों की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट कराया है। जैसे-हमारी नीरस शिक्षा में बहुमूल्य समय नष्ट हो जाता है। बीस-बाईस वर्ष की आयु तक हमें जो शिक्षा मिलती है उसका हमारे जीवन से रासायानिक मिश्रण नहीं होता। इससे हमारे मन को एक अजीब आकार मिलता है। शिक्षा से हमें जो विचार और भाव मिलते हैं उनमें से कुछ को तो लेई से जोड़कर हम सुरक्षित रखते हैं, और बचे हुए कालक्रम से झड़ जाते हैं।
बर्बर जातियों के लोग शरीर पर रंग लगाकर या शरीर के विभिन्न अंगों को गोंदकर, गर्व का अनुभव करते हैं; जिससे उनके स्वाभाविक स्वास्थ्य की उज्जवलता और लावण्य छिप जाते हैं। उसी तरह हम भी अपनी विलायती विद्या का लेप लगाकर दंभ करते हैं किंत यथार्थ आंतरिक जीवन के साथ उसका योग बहत कम ही होता है। हम सस्ते, चमकते हुए, विलायती ज्ञान को लेकर शान दिखाते हैं विलायती विचारों का असंगत रूप से प्रयोग करते हैं। हम स्वयं यह नहीं समझते कि अनजाने ही हम कैसे अपूर्व प्रहसन का अभिनय कर रहे हैं। यदि कोई हमारे ऊपर हँसता है तो हम फौरन योरोपीय इतिहास से बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
लेखक ने यहाँ शिक्षा और जीवन के बीच परिहास का विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत किया है जो विचारणीय तथ्य है। लेखक ने निचोड़ के रूप में जो विचार व्यक्त किया है वह है-जब हम शिक्षा के प्रति अशद्धा व्यक्त करते हैं तब शिक्षा भी हमारे जीवन से विमुख हो जाती हैं। हमारे चरित्र के ऊपर शिक्षा का प्रभाव विस्तृत परिमाण में नहीं पड़ता। शिक्षा और जीवन का आपसी संघर्ष बढ़ता जाता है। वे एक-दूसरे का परिहास करते हैं।
प्रश्न 11.
मातृभाषा के प्रति अवज्ञा की भावना लोगों के मन में किस तरह उत्पन्न होती है?
उत्तर–
लेखक ने मनोवैज्ञानिक तथ्य को उजागर करते हुए उपर्युक्त प्रश्न को समझाने का प्रयास किया है।
लेखक का कथन है कि-हमारे बाल्यकाल की शिक्षा में भाषा के साथ भाव नहीं होता, और जब हम बड़े होते हैं तो परिस्थिति इसके ठीक विपरीत हो जाती है। अब भाव होते हैं, लेकिन उपर्युक्त भाषा नहीं होती। भाषा शिक्षा के साथ-साथ, भाव-शिक्षा की वृद्धि न होने से योरोपीय विचारों से हमारा यथार्थ संसर्ग नहीं होता, और इसीलिए आजकल बहुत से शिक्षित लोग योरोपीय विचारों के प्रति अनादर व्यक्त करने लगे हैं। दूसरी ओर, जिन लोगों के विचारों से मातृभाषा का दृढ़ संबंध नहीं होता वे अपनी भाषा से दूर हो जाते हैं और उसके प्रति उनके मन में अवज्ञा की भावना उत्पन्न होती है।
हम चाहे जिस दिशा से देखें, हमारी भाषा, जीवन और विचारों का सामंजस्य दूर हो गया है। हमारा व्यक्तित्व विच्छिन्न होकर निष्फल हो रहा है, इसलिए मातृभाषा के प्रति अवज्ञा उत्पन्न हो रही है।
व्याख्याएँ
प्रश्न 12.
(क) “हम विधाता से यही वर मांगते हैं-हमें क्षुधा के साथ अन्य, शीत के साथ वस्त्र, भाव के साथ भाषा और शिक्षा के साथ शिक्षा प्राप्त करने दो।”
(ख) “चिंता-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक है।”
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर लिखित ‘शिक्षा में हेर-फर’ शीर्षक निबंध से उद्धृत हैं। इसमें लेखक ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से भाव को प्रस्तुत किया है।
लेखक का कहना है कि हेर-फेर दर होने से ही हमारा जीवन सार्थक होगा हम सर्दी में गरम कपड़े और गर्मी में ठंड कपड़े जमा नहीं कर पाते तभी हमारे जीवन में इतना दैन्य है-वरना हमारे पास है सब कुछ।
इसलिए लेखक ईश्वर से उपर्युक्त वर मांगता है। वह कहता है कि हमारी दशा तो वैसी ही है कि
पानी बिच मीन पियासी ।
मोहि सुनि-सुनि आवे हॉसी।
हमारे पास पानी भी है और प्यास भी है। पानी के बीच छटपटाती, तड़पतीमछली की तरह हमारी स्थिति है। इस स्थिति पर हँसी भी आती है। आँखों से आँसू टपकते हैं, लेकिन हम प्यास नहीं बझा पाते।
(ख) प्रस्तुत पंक्तियाँ रवीन्द्रनाथ टैगोर रचित ‘शिक्षा में हेर-फेर’ निबंध से उद्धृत हैं। इसमें लेखक ने सफल दार्शनिक के रूप में उपर्युक्त पंक्तियों का विवेचन किया है।
लेखक का कथन है कि चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति दोनों जीवन-यात्रा संपन्न करने के लिए अत्यावश्यक हैं, इसमें संदेह नहीं। यदि हमें वास्तव में मनुष्य होना है तो इन दोनों को जीवन में स्थान देना होगा। इसलिए यदि बाल्यकाल से ही चिंतन और कल्पना पर ध्यान न दिया गया तो काम पड़ने पर उनका अभाव दुखदायी सिद्ध होगा। हमारी शिक्षा में पढ़ने की क्रिया के साथ-साथ सोचने की क्रिया नहीं होती। हम ढेर-का-ढेर जमा करते हैं पर कुछ निर्माण नहीं करते।
लेखक का कथन सत्य है कि जबतक चिंतन-शक्ति और कल्पना-शक्ति साथ-साथ संचालित नहीं होंगी मनुष्य हमेशा असफल ही रहेगा। इसलिए मनुष्यत्व के विकास के लिए उपयुक्त दोनों शक्तियों को साथ-साथ ग्रहण करना होगा।
प्रश्न 13.
वर्तमान शिक्षा प्रणाली का स्वाभाविक परिणाम क्या है?
उत्तर-
उपर्युक्त तथ्यों के आलोक में लेखक ने वर्तमान शिक्षा-प्रणाली के स्वाभाविक परिणाम का बड़ा ही चिंतनीय पक्ष उपस्थित किया है।
लेखक का कथन है कि जब हमारे बच्चे इस भाषा को पढ़ते हैं तो उनके मन में कोई स्मृति जागृत नहीं होती, उनके सामने कोई चित्र प्रस्तुत नहीं होती। अंधभाव से उनका मन अर्थ को टटोलता रहता है। नीचे के दर्जे जो मास्टर पढ़ाते हैं में अंग्रेजी भाषा, भाव, आचार, व्यवहार, साहित्य-किसी से वे परिचित नहीं होते हैं और उन्हीं के हाथों हमारा अंग्रेजी के साथ प्रथम परिचय होता है। वे न तो स्वदेशी भाषा अच्छी तरह जानते हैं, न अंग्रेजी। उन्हें बस यही सुविधा है कि बच्चों को पढ़ाने की तुलना में उनका मन बहलाना बहुत आसान है। लेखक ने वर्तमान शिक्षा प्रणाली के स्वाभाविक दोषों को बड़े ही सहज ढंग से प्रस्तुत किया है।
प्रश्न 14.
अंग्रेजी हमारे लिए काम-काज की भाषा है, भाव की भाषा नहीं। कैसे?
उत्तर-
लेखक का कथन है कि अंग्रेजी विदेशी भाषा है, इसे काम-काज की भाषा की संज्ञा दी जा सकती है। शब्द-विन्यास और पद-विन्यास की दृष्टि से हमारी भाषा के साथ उसका कोई सामंजस्य नहीं। भाव-पक्ष और विषय-प्रसंग भी विदेशी होते हैं। शुरू से आखिर तक सभी अपरिचित चीजें होती हैं, इसलिए धारणा उत्पन्न होने से पहले ही हम रटना आरंभ कर देते हैं। फल वही होता है जो बिना चबाया अन्न निगलने से होता है।
लेखक ने बड़े ही मनोवैज्ञानिक ढंग से समझाया है कि अंग्रेजी भाषा से हम बेरोजगारी की समस्या को थोड़ा सुलझा सकते हैं मगर हमारी संस्कृति, सभ्यता, आचार-विचार आदि सभी नियमों का पालन आदि के साथ अपनी भावना को विकसित करने में अपनी मातृभाषा सहायक होती है। यही सत्य है।
प्रश्न 15.
आज की शिक्षा मानसिक शक्ति का हस कर रही है। कैसे? इससे छुटकारे के लिए आप किस तरह की शिक्षा को बढ़ावा देना चाहेंगे?
उत्तर-
लेखक का कथन उपर्युक्त प्रश्न के संदर्भ में यह कहना है कि हमारी शिक्षा में बाल्यकाल से ही आनन्द का स्थान नहीं होता। जो नितांत आवश्यक है उसी को हम कंठस्थ करते हैं। इससे काम तो किसी-न-किसी तरह चल जाता है लेकिन हमारा विकास नहीं होता। हवा से पेट नहीं भरता-पेट तो भोजन से ही भरता है। लेकिन भोजन को ठीक से हजम करने के लिए हवा आवश्यक है।
लेखक का कहना है कि आनंद के साथ पढ़ते-रहने से पठन-शक्ति भी अलक्षित रूप से बढ़ती है; सहज-स्वाभाविक नियम से ग्रहण-शक्ति,. धारणा-शक्ति और चिंता-शक्ति भी सबल होती है।
लेखक का कथन है कि मानसिक शक्ति का ह्यस करने वाली इस निरापद शिक्षा से मुक्ति के लिए हमें मातृभाषा के माध्यम से मानसिक शक्ति का विकास करना होगा तभी हमें इससे छुटकारा मिल सकेगा।
भाषा की बात
प्रश्न 1
संधि – विच्छेद करे
2. निम्नलिखित शब्दों के विलोम शब्द लिखे
3. निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखे
4. निम्नलिखित शब्दों के समास विग्रह करे और प्रकार बताये
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