Bihar Board Class 9 Hindi Solutions पद Chapter 11: समुद्र

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विषयहिंदी
पाठसमुद्र
कविसीताराम महापात्र
वर्ग9th
भागगोधलि भाग-1, पद
CategoryBihar Board Class 9 Solutions

Bihar Board Class 9 Hindi Solutions पद Chapter 11

समुद्र

प्रश्न 1.

समुद्र ‘अबूझ भाषा’ में क्या कहता रहता है ?

उत्तर-
समुद्र ‘अबूझ भाषा’ में मनुष्य से कहता है कि मेरा यानि समुद्र का कुछ नहीं होता यही अबूझ भाषा में वह अपने मनोभाव को प्रकट करता है। समुद्र . के अबूझ भाषा में कहने का मूलभाव यह है कि समुद्र अक्षय का भण्डार है। मनुष्य को अपनी इच्छानुसार समुद्र के अक्षय भण्डार से जितना कुछ लेने की इच्छा हो उतना वह ले ले। यहाँ समुद्र की उदारता और विराटता का चित्रण हुआ है। मनुष्य अपनी इच्छानुसार जितना भी समुद्र का अपने हित के लिए उपयोग करेगा उससे समुद्र का कुछ नहीं बिगड़ेगा, कुछ नहीं घटेगा। समुद्र की अभिलाषा भी कम नहीं होगी।

“यहाँ मूक और अबूझ भाषा में समुद्र के माध्यम से प्रकृति और पुरुष के बीच के संबंधों को उजागर किया गया है। प्रकृति के विभिन्न रूप मनुष्य के विकास में कितना सहायक है, इसकी चर्चा उपरोक्त कविता में हुई है। इस प्रकार सागर प्रकृति का विराट अवयव है जो मानव हित में सदैव उपयोगी रहा है। उसके द्वारा मानव अपनी सभ्यता और संस्कृति शकर को खींचकर यहाँ तक लाया है। प्रकृति की भाषा तो रहस्यमयी है ही। इस प्रकार समुद्र भी अपने मौन रूप में ही अबूझ भाषा का उपयोग करते हुए मानव हित में अपनी तत्परता को व्यक्त करता है। इस प्रकार यहाँ प्रकृति पुरुष, सृष्टि के सृजन की ओर ध्यान खींचा गया है।

प्रश्न 2.

समुद्र में देने का भाव प्रबल है। कवि समुद्र के माध्यम से क्या कहना चाहता है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ नामक कविता में कवि ने प्रतीक प्रयोगों द्वारा मानव जीवन के लिए समुद्र की उपयोगिता पर ध्यान आकृष्ट किया है।
समुद्र अक्षय भंडार है। वह सदैव से सृष्टि के सृजन में सहयोगी रहा है। समुद्र । अपनी अबूझ भाषा में मौन रूप में रहकर मानव हित के लिए तत्पर है। वह कहता है कि मेरे गर्भ में पल रहे घोंघे, केंकड़े या अन्य जीव-जन्तुओं से मनुष्य ने अपने उपयोग के लिए अनेक वस्तुओं का निर्माण किया है। वह मेरे सौंदर्य का दुख भी लूटा है। वह मेरे अक्षय निधि से अपना हित भी साधा है। जीवनोपयोगी अनेक चीजों जैसे-बटन, औजार, टेबुल पर सजाने की चीजों का निर्माण किया है।

वह सागर के चित्रों को फोटो फ्रेम में सजाकर टी० बी० के बगल में रखा भी है। सागर मनुष्य से कहता है कि सूरज तो अनवरत आदि काल से अपनी प्यास मेरी छाती से बुझा रहा है लेकिन आजीवन वह प्यासा का प्यासा ही है और मैं भी तो सूखा नहीं यानि मेरा भी तो कुछ घटा नहीं।

सागर पुनः कहता है कि ऐ मानव! मुझे तुम कुछ देना चाहते हो तो दे जाओ किन्तु तुम्हारी देने की विसात ही क्या है? सिवा मुझसे लेने के तुम क्या दे सकते हो? तुम्हारा तो जीवन सदैव से यायावरी रूप लिए रहा है। तुम्हारे पद-चिन्ह भी तो सदैव बनते-मिटते रहे हैं। तुम स्थिर जीवन जी ही कब पाये? तुम्हारी चंचलता और तुम्हारी आतुरता ने तुम्हें स्थायित्व प्रदान ही कहाँ किया?

इस प्रकार तुम्हारे पद-चिन्हों को बनाने-बिगाड़ने में मेरा भी सहयोग रहा है। मैंने सदैव तुम्हारे पद-चिन्हों को लीप-पोतकर मिटाया है। तुम्हारी आतुरताभरी वापसी को अपने सुलभ स्वभाव के अस्थिर हलचलों में मैंने मिला लिया है। इन पंक्तियों में सृष्टि-सुजन एवं संहार के रूपों का बड़ी बारीकी से कवि ने चित्रित किया है। सागर हमारी सभ्यता और संस्कृति के निर्माण एवं विध्वंस में सदैव संलग्न रहा है। इस धरती पर अनेक सभ्यताएँ बनी-बिगड़ी। कई संस्कृतियाँ विकसित हुईं और मिटी भी।

इस प्रकार पुरातन एवं नूतन के सृजन एवं संहार के बीच सदैव खेल होता रहा है। यही प्रकृति का नियम है। प्रकृति और मानव का संबंध आदिकाल से रहा । _है दोनों एक-दूसरे के पूरक रूप में सहयोगी रहे हैं। अपनी स्वार्थपरता, इच्छा की पूर्ति के लिए मानव ने प्रकृति के सारे रूपों का इस्तेमाल किया है। उपभोग किया है। इस प्रकार ‘समुद्र’ के प्रतीक प्रयोग द्वारा कवि ने मानव और ‘समुद्र’ के बीच के संबंधों में उसकी उपयोगिता एवं साथ ही उपभोक्तावादी संस्कृति के कई रूपों का सफल चित्र प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 3.

निम्नांकित पंक्तियों का भाव-सौंदर्य स्पष्ट करें।

“सोता रहँगा छोटे से फ्रेम में बँधा
गर्जन-तर्जन, मेरा नाच गीत उद्वेलन
कुछ भी नहीं होगा।”

उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘समुद्र’ काव्य पाठ से ली गई हैं। इन पंक्तियों में महाकवि सीताराम महापात्र ने ‘समुद्र’ के जीवंत रूप का चित्रण करते हुए उसकी
महत्ता की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। कवि कहता है कि सागर प्रतीक रूप में मनुष्य से अपनी पीड़ा या भावना को व्यक्त करते हुए कहता है कि-मेरे चित्र यानि ‘समुद्र’ के चित्र को छोटे से फ्रेम में गढ़कर तुम टी. वी. के बगल में टाँग दोगे।
उस चित्र में मेरा जीवंत स्वरूप दृष्टिगत नहीं होगा। मैं तो उस फोटो में सुषुप्तावस्था में दिखाई पगा। मेरी जीवंतता, मेरी यथार्थता वहाँ से ओझल हो जाएगी। समुद्र में जो गर्जन-तर्जन, गीत-नृत्य आलोड़न होता है उसे आँखों के समक्ष देखकर तुम जितना प्रसन्नचित्त अपने को पाओगे उतना उस चित्र युक्त फोटो से नहीं। तुम्हें मेरे सही रूप का दर्शन वहाँ नहीं होगा। – यहाँ कवि सूक्ष्म रूप से फोटो की अनुपयोगिता की ओर ध्यान आकृष्ट करता है।

चित्र युक्त समुद्र की तुलना में यथार्थ समुद्र का दर्शन, उसने गर्जन-तर्जन को सुनना उसके गीत-नृत्य को सुनना-देखना और उसमें जो हलचलें होती हैं-उसका प्रत्यक्ष, दर्शन करना ही यथार्थ है। यानि समुद्र का जो प्राकृतिक स्वरूप है। जो प्राकृतिक सुषमा है उसके आगे ये कृत्रिम रूप टिक पाएँगे क्या? सागर के गर्जन में जो यथार्थ सौंदर्य का दर्शन होता है, उसके तर्जन में जो रूप-सौंदर्य दीखता है। उसके गीत में जो आनंद मिलता है, उसके नृत्य में जो प्रसन्नता होती है।

सागर की हलचलों में उठते-गिरते जल-तरंगों को देखकर किसका मन प्रसन्न नहीं होता होगा? यानि सागर के इन यथार्थ रूपों का दर्शन का मानव भाव-विह्वल हो उठता है। इस प्रकार कवि ने सागर के सौंदर्य-बोध को अपने शब्दों के द्वारा सफल चित्रण करने में सफलता पायी है। सागर के मूलरूपों का सम्यक् और सटीक चित्रण किया है। उसके गुणों का अंकन किया है। . इस प्रकार चित्रात्मकता एवं गीतात्मकता से युक्त दृश्यों का प्रतिबिंब उपस्थित करते हुए कवि ने सागर के सौंदर्य बोध को काव्य पंक्तियों के माध्यम से प्रस्तुत, किया है।

प्रश्न 4.

‘नन्हें-नन्हें सहस्र गड्ढों के लिए/भला इतनी पृथ्वी पाओगे कहाँ’ से कवि का क्या अभिप्राय है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ काव्य पाठ में सीताराम महापात्र ने उपरोक्त काव्य पंक्तियों के द्वारा समुद्र और पृथ्वी की विराटता, महत्ता, उपयोगिता पर यथेष्ट प्रकाश डाला है। सागर जब मनुष्य से पूछता है यह कहता है कि मेरे गर्भ में पल रहे सैकड़ों जीव-जंतु जो विद्यमान है उनमें से केंकड़ा भी एक उपयोगी जीव है। अगर तुम उसे ‘पकड़कर अपनी आवश्यकतानुसार रखना चाहते हो तो यह पृथ्वी सागर की तुलना में छोटी पड़ जाएगी। मेरे गर्भ की गहराई अथाह है जबकि धरती की सीमाएँ सीमित हैं। अगर उन केंकड़ों को रखने के लिए इस धरती पर तुम हजारों गड्ढों का निर्माण करोगे तो भी यह धरती छोटी पड़ जाएगी।

यहाँ कवि के कहने का भाव यह है कि सागर की विराटता और उपयोगिता अपने महत्व के आधार पर अलग है जबकि धरती की उपयोगिता अलग है। दोनों का महत्व मनुष्य के लिए समान है लेकिन कार्य और प्रकृति के अनुसार दोनों के, उपयोग में भिन्नता है। यहाँ कवि सागर की विराटता और उसकी महत्ता को चित्रित किया है।

केंकडे रूपी जीव के माध्यम से जीवंतता का सटीक चित्रण मिलता है। अपनी स्वार्थ- परता और अंधे रूप में उपयोग के लिए इन जीवों या वस्तुओं के साथ मनुष्य, जिस क्रूर रूप में बर्ताव उपस्थित करता है, वह चिंतनीय एवं आलोचना का विषय है। यहाँ उपभोक्तावादी संस्कृति की ओर अपने व्यंग्यात्मक पंक्तियों द्वारा कवि जीवन के यथार्थ का चित्रण करने में सफल रहा है। यहाँ सागर और उसके. जीवों की उपयोगिता और महत्ता मानव जीवन के लिए अत्यधिक है किन्तु मानव स्वार्थ में अंधा हो गया है। वह उसकी जीवंतता के साथ खिलवाड़ करता है। उसके मूल-सौंदर्य को मिटाने में लगा रहता है वह घोर रूप में उपयोगी जीवन जी रहा है। इस प्रकार प्रकृति के विराट रूपों-सागर एवं धरती के साथ मनुष्य की स्थिति एवं संबंधों को कवि ने स्पष्ट चित्र उकेरा है।

प्रश्न 5.

कविता में “चिर-तृषित’ कौन है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ काव्य पाठ में, सीताराम महापात्र ने चिरतृषित’ रूप में सूर्य को प्रतीक मानकर किया है। इस कविता में ‘चिर-तृषित’ के रूप में सूर्य को दर्शाया गया है। सूर्य सदैव सागर के जल को सोखता रहा है यानि पीता रहा है। यहाँ सूर्य का प्रतीक रूप इस धरती का मानव है। वह सदियों से भूखा-प्यासा है। आज भी उसकी भूख-प्यास मिटी नहीं है। वह युगों-युगों से प्रकृति के रूपों, साधनों वस्तुओं का अपनी सुख-सुविधा के लिए उपयोग करता रहा है। उसकी चिर-पिपासा अभी तक बुझी नहीं है। वह सदैव उपभोक्तावादी संस्कृति के बीच जी रहा है। उसकी स्वार्थपरता अंधविश्वास एवं अविश्वासनीयता द्रष्टव्य है चिंतनीय है।

सृष्टि के सृजन काल से लेकर आज तक मानव ने क्या-क्या खोजें नहीं की। अपनी सुख-सुविधा और उपभोग के लिए नित नयी-नयी चीजों का अनुसंधान किया और उसका उपयोग भी जमकर किया। लेकिन उसे आज भी शांति और चैन नहीं है। वह बेचैन और भूखा-प्यासा है। ‘चिर-तृषित’ के रूप में सूर्य रूपी मानव आज भी अपनी अतृप्त भूख-न्यास के बीच तड़प रहा है, आतुरमय जीवन जी रहा है।

सप्रसंग व्याख्या करें:

प्रश्न 6.

(क) उन पद-चिन्हों को,
लीप-पोतकर मिटाना ही तो है काम मेरा
तुम्हारी आतुर वापसी को
अपने स्वभाव सुलभ
अस्थिर आलोड़न में
मिला लेना ही तो है काम मेरा।

उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के ‘समुद्र’ काव्य पाठ शीर्षक से ली गई हैं। इन पंक्तियों का प्रसंग समुद्र एवं मानव के बीच के अटूट संबंधों से जुड़ा हुआ है।

महाकवि सीताराम महापात्र के अपनी ‘समुद्र’ कविता में उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से मानव सभ्यता के अमिट चिन्हों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। कवि कहता है कि सागर ने मानव द्वारा निर्मित पद-चिन्हों को लीप-पोतकर अनेक बार मिटाने का काम किया है। मनुष्य की आतुरतामय वापसी को वह अपने स्वभाव के अनुसार अस्थिर हलचलों के द्वारा सुलभता के साथ स्वयं में मिला लिया है। यानि अपने में समाहित कर लिया है। इन पंक्तियों के प्रयोग द्वारा कवि ने गूढ़ भाव की व्याख्या की है। मानव स्वयं द्वारा निर्मित सभ्यता और संस्कृति के शकट को अनवरत काल से खींचता ला रहा है। लेकिन इस धरती पर विलुप्त हो गयी और पुनः नए रूप में अवतरित हुई। इस प्रकार इस विकास पथ का निर्माण सदैव होते रहा है। मानव सदैव प्रगति पथ का अनुगामी रहा है।

वह प्रकृति के साथ चलकर अपने सृजन कर्म में सदैव लीन रहा है। लेकिन सागर का भी काम तो यही रहा है कि उसने अनेक सभ्यताओं को विकसित और पल्लवित-पुष्पित होते देखा। उन्हें स्वयं में विलीन होते भी देखा। इस प्रकार सागर भी साक्षी है इस उत्थान-पतन की कहानी का। सागर के प्रतीक प्रयोग द्वारा मानव सदैव से सृजन और संहार के बीच जीता रहा है और नित नए-नए अन्वेषण के द्वारा उसमें नवीनता का दर्शन कराता है।


(ख)क्या चाहते हो ले जाना घोंघे?
क्या बनाओगे ले जाकर? ।
कमीज के बटन
नाड़ा काटने के औजार।

उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ ‘समुद्र’ काव्य पाठ से उद्धृत की गयी हैं। इस कविता के कवि सीताराम महापात्र जी हैं। इन्होंने अपनी इन काव्य पंक्तियों में समुद्र के अंतर्गत पल रहे जीव-जंतुओं के माध्यम से मानवीय जीवन के संबंधों को उजागर किया है। इसका प्रसंग उन्हीं जीव-जंतुओं के जीवन से जुड़ा हुआ है।

उपरोक्त पंक्तियों में कवि ने ‘समुद्र’ के माध्यम से यह कहना चाहा कि ऐ मानव! तुम मुझसे क्या चाहते हो घोंघा? घोंघे को ले जाकर तुम उसका क्या उपयोग करोगे? क्या उसका कमीज के बटन बनाने में उपयोग करोगे या कि नाड़ा काटने के लिए औजार का रूप गढ़ोगे।

इन पंक्तियों में कमीज, बटन, औजार मानव जीवन के लिए उपयोगी चीजें हैं। घोंघा एक उपयोगी जीव ही नहीं है बल्कि प्रतीक रूप में प्रयुक्त भी है। मानव कितना स्वार्थ में अंधा हो गया है कि घोंघे की जीवंतता से मजाक करता है। उसको मारकर अपने जीवनोपयोगी वस्तुओं का निर्माण करता है तथा उसे उपयोग में लाता है। इन पंक्तियों में मनुष्य की उपभोक्तावादी संस्कृति पर कवि ने तीखा प्रहार किया है। कवि ने घोंघे की जीवंतता में जिस सौंदर्य का दर्शन करता है वह उसे मारकर अपने उपयोग में लाए गए वस्तुओं में नहीं प्राप्त करता है। कवि ने इस पंक्तियों में घोंघे की जीवन एवं उससे जडे हए सौंदर्य की ओर हमारा ध्यान खींचा है। घोंघा के जीवन में जो स्वच्छंदता है रेंगने में जो आत्मीय सुख है। जल के बीच और रेत में रहकर जीते हुए जो आनंद है, उसे मारकर वह आनंद नहीं सुलभ हो सकता। इस प्रकार कवि ने प्रकृति के साथ किए गए दुर्व्यवहार और मानव की क्रूरता का वर्णन करते हुए उसे सचेत किया है।

समुद्र सदैव मानव के लिए उपयोगी रहा है। वह मानव के विकास एवं उसके सुख-दुख में सदैव सहयोग किया है। इस प्रकार उपरोक्त पंक्तियों में एक छोटे से घोंघे के प्रतीक रूप से जीवों की मानव जीवन में क्या उपयोगिता है। इसकी ओर कवि ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।

इस प्रकार सीताराम महापात्र ने घोंघे, समुद्र, प्रकृति और मनुष्य के बीच के अटूट और आत्मीय संबंधों की सटीक व्योरे या प्रस्तुत करते हुए अपनी इन काव्य पंक्तियों में यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया है। ये जीव-जंतु हमारे जीवन में सदैव ‘उपयोगी रहे हैं और आगे भी रहेंगे।

प्रश्न 7.

समुद्र मनुष्य से प्रश्न करता है। इस तरह के प्रश्न के पीछे मनुष्य की उपभोक्तावादी प्रवृत्ति का पता चलता है। आप इससे कहाँ तक सहमत हैं। इस पर अपने विचार प्रकट करें।

उत्तर-
‘समुद्र’ शीर्षक कविता के माध्यम से महाकवि सीताराम महापात्र ने कई प्रकार के प्रश्नों को उठाया है। इन प्रश्नों के भीतर मनुष्य की उपभोक्तावादी संस्कृति का दिग्दर्शन होता है।

‘ कवि ने ‘समुद्र’ के विराट एवं उदार पक्ष को उदघाटित किया है। समुद्र मनुष्य के लिए अपना अक्षय भंडार सुपुर्द कर देता है। वह मनुष्य को यह भी छूट दे देता है कि जो चाहो, जितना चाहो अपने उपयोग के लिए मेरे इस अक्षय भांडर का सदुपयोग करो। इससे मेरा कुछ स्वरूप नहीं बदलेगा। मेरा कुछ नहीं घटेगा। इन भावों में ‘समुद्र’ का प्रयोग प्रकृति के अवयव एवं प्रीतक रूप में प्रयोग हुआ है। समुद्र मानव के विकास में सदैव सहयोगी रहा है। _’समुद्र’ अपने भीतर पल रहे जीव-जंतुओं की महत्ता एवं उपयोगिता पर भी प्रकाश डालते हुए उसकी बड़ाई की है। समुद्र के भीतर जितने भी जीव-जंतु पलते हैं वे किसी न किसी रूप में मानव के लिए हितकारी हैं।

कवि केंकड़े और घोंघे के द्वारा समुद्री जीव जंतुओं की महत्ता का प्रतीकात्मक रूप में प्रयोग करते हए वर्णन किया है। ये जीव मानव जीवन के लिए जितना जीवं रूप में उपयोगी हो सकते हैं। उतना मृत रूप में नहीं। अतः उनके जीवन में उसे सौंदर्य और विशेषताएँ छिपी हैं वे उनके मृत रूप से प्राप्त वस्तुओं में नहीं।

कवि-समुद्र के सचित्र को फ्रेम में मढ़ाकर अपने टी. वी. के समक्ष रखकर जो आनंद उठाना चाहता है, वह उचित नहीं जान पड़ता।
समुद्र के ‘गजन-तर्जन, नृत्य-गीत एवं हलचल, में जो जीवंतता है, जो सौंदर्य-बोध है वह उसके चित्र युक्त फोटो फ्रेम में नहीं। यहाँ समुद्र का प्रतीकात्मक प्रयोग है। समुद्र का मानव हित के लिए कितनी उपयोगिता है उसके यथार्थ रूप में कितना सौंदर्य है आनंद है, प्रसन्नता मिल सकती है वह उसके चित्र में संभव नहीं।

कवि अपनी कविता में समुद्र की विराटता एवं उदारता को प्रकट करते हुए उसकी विशेषताओं की ओर ध्यान खींचा है। जिस प्रकार, सूर्य सदैव प्यासे रूप में सागर के जल को पीकर तृप्त नहीं होता है, उसकी प्यास यथावत बनी रहती है, ठीक उसी प्रकार मनुष्य की भी स्थिति है। मनुष्य भी बड़ा स्वार्थी है, वह सदियों से भूखा-प्यासा रहा है। वह प्रकृति के विभिन्न स्रोतों एवं रूपों का शोषण-दोहन किया है लेकिन उसकी भूख और प्यास अतृप्त अवस्था में ही है।

कवि मनुष्य से कुछ कामना करता है यानि समुद्र कहता है कि मनुष्य को जो देना है। वह दे दे किन्त वह देगा क्या? उसके पास लेने के सिवा देने के लिए है ही क्या? उसका चंचल और आतुर जीवन कभी भी स्थिर नहीं रहा है। उसमें ठहराव भी नहीं।
समुद्र कहता है कि मानव निर्मित पद-चिन्हों को तो वह सदैव लीप-पोतकर मिटाता रहा है। उसकी आतुरता, चंचलता को अपने आलोड़न यानि हलचल में समाहित कर लेता है। यही तो सागर का काम है। मानव के अस्तित्व को अपने अस्तित्व में समाहित कर लेना।

यहाँ सृजन एवं संहार के गूढ भावों की ओर कवि ने ध्यान आकृष्ट किया है। कवि ने सागर द्वारा प्रकृति के रहस्यमयी रूपों को उद्घाटित किया है। मानव की सभ्यता और संस्कृति सदैव पुरातन से नूतन की ओर अग्रसर होती रही है। वह जड़-चेतन के अटूट संबंधों को भी अपनी काव्य-पक्तियों के द्वारा उद्घाटित करता है। . इस प्रकार सीताराम महापात्र ने अपनी काल्य प्रतीभा द्वारा प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को उद्घाटित करते हुए उसके उपभोक्तावादी संस्कृति पर भी तीखा व्यंग्य किया है। मानव सदैव से ही प्रकृति के साथ अपना संबंध स्थापित कर उसके विभिन्न स्रोतों से अपने स्वार्थ की पूर्ति में सदैव संलग्न रहा है। इस प्रकार यह कविता ‘समुद्र’ के माध्यम से मानव जीवन की उपभोक्तावादी संस्कृति को उद्घाटित करने में सक्षम है।

प्रश्न 8.

कविता के अनुसार मनुष्य और समुद्र की प्रकृति में क्या अंतर है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ कविता सीताराम महापात्र की एक उत्कृष्ट कविता है। इसमें मनुष्य और समुद्र के बीच के अटूट संबंध पर कवि ने प्रकाश डाला है।

कवि सागर की उदारता, विराटता और उसकी महत्ता का अनूठा चित्रण प्रस्तुत किया है। सांगर का स्वरूप सदैव से मनुष्य के लिए हितकारी रहा है। सागर के पास अक्षय भंडार है। उसके गर्भ में रत्नों की खान है। जीव-जंतुओं की अधिक भरमार है। वे किसी न किसी रूप में मानव जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध होते हैं।

अपनी ‘समुद्र’ कविता में कवि ने उसके विविध रूपों का वर्णन किया है। समुद्र का प्रयोग प्रतीक प्रयोग है। समुद्र खुले हाथ से अपनी अक्षय निधि को मानव के लिए दान करना चाहता है। वह दानवीर एवं त्यागी रूप में चित्रित हुआ है। मनुष्य को जितना जिस चीज की जरूरत हो, खुले हृदय से वह सागर के गर्भ से ले सकता है। इसके लिए सागर को कोई पीड़ा होने का उलाहना देने की स्थिति नहीं आएगी।

सागर में पल रहे जीव-जंतुओं का उपयोग भी मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए करता है किंतु इस पक्ष का कवि समर्थन नहीं करता। कवि की दृष्टि में यह मानव का कमजोर पक्ष साबित हुआ है। वह घोंघों, केंकड़े की जीवंतता में विश्वास करता है, उसके मेरे हुए जीवन के उपयोग में नहीं।

समुद्र अपनी प्राकृतिक सुषमा के यथार्थ चित्र को मनुष्य के लिए हितकारी मानता है। समुद्र का असली रूप ही जिसमें गर्जन-तर्जन निहित है, गीत-नृत्य जुड़ा हुआ है और उसके बीच हलचल यानि जल-तरंगें उठती रहती हैं, उसी यथार्थ रूप का कवि पक्षधर है। समुद्र के इसी रूप में जो आनंद, उत्साह या प्रसन्नता मनुष्य को मिलती है वह उसके मृत चित्र में नहीं। यह प्रकृति के असली रूप के दिग्दर्शन, उसके सौंदर्य को देखने-परखने का हिमायती कवि रहा है।

कवि समुद्र की अभिलाषा को भी प्रकट करता है। वह हमेशा से चिर-तृषित सूर्य की प्यास को बुझाते आया है। लेकिन सूर्य की प्यास आज भी अतृप्त है। यहाँ सूर्य का प्रयोग मनुष्य के लिए हुआ है। मनुष्य की लालसा, आकांक्षा या भूख-प्यास सदियों से अमिट रूप लिए रही है। वह आज भी, उतना ही भूखा-प्यासा है जितना सृष्टि के आरंभ में था। उसकी आकांक्षा आज और विकराल रूप धारण कर चुकी है। वह अपनी स्वार्थपरता में अंधा हो चुका है वह अपने हित में प्रकृति के संसाधनों एवं रूपों का शोषण-दोहन करता आ रहा है। कवि अपनी कविताओं समुद्र की उदारता को चित्रित किया है। वह मानव द्वारा निर्मित पद-चिन्हों को लीप-पोतकर मिटाने का काम करता रहा है। कहने का भाव यह है कि प्रकृति द्वारा मानव की सत्यता और संस्कृति के विकास में मदद तो मिला है किन्तु उसके संहार में भी समुद्र का कहीं न कहीं हाथ रहा है।

मनुष्य तो चंचल, आतुर चित्त वाला रहा है। वह अपने द्वारा सृजन कर्म करते चला आ रहा है। प्रकृति के भीतर सृजन के साथ संहार तत्व भी छिपा रहता है। इसमें जब प्रकृति के नियमों का व्यतिक्रमण होता है तब वह अनुशासन कायम करना भी जानती है। इस प्रकार सृजन-संहार के बीच मानव और प्रकृति का निरंतर खेल चलता रहता है। प्रकृति के कई रूप मानव के विकास में सहायक होते हैं तो कई रूप उनके अस्तित्व को नवीन रूप देने में भी संलग्न रहते हैं। इस प्रकार पुरातन और नूतन के बीच एक रहस्यमयी खेल चलता रहता है। मनुष्य का स्वभाव और प्रवृत्ति अपने हित और स्वार्थ में उपभोक्तावादी है जबकि प्रकृति या समुद्र का रूप सृजन को ऊंचाई देने के साथ उसका सुव्यवस्थित करने में भी सक्रिय है। मनुष्य उपभोक्ता है और प्रकृति संसाधनों से युक्त है। इस प्रकार समुद्र भी प्राकृतिक संसाधन है और मनुष्य का उसके साथ अटूट संबंध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों सृजन और संहार के बीच जीते हुए युगों-युगों से परस्पर संबंधों का निर्वाह करते आ रहे हैं।

प्रश्न 9.

कविता के माध्यम से आपको क्या संदेश मिला है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ कविता के माध्यम से सीताराम महापात्र ने मानव के लिए एक नूतन संदेश देने का काम किया है। अपनी इस उत्कृष्ट कविता के द्वारा कवि ने समुद्र . की उपयोगिता, महत्ता, विराटता और उसकी मानव के लिए जरूरत की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए प्रकृति के यथार्थ रूप का सुंदर और सटीक चित्रण किया है।

कवि ने समुद्र की उदारता के प्रबल पक्ष को उदघाटित किया है। समुद्र सदैव अपने अक्षय भंडार को मानव हित के लिए बिना मीन-मेष के प्रस्तुत किया है। वह मनुष्य को संदेश देता है कि मेरे गर्भ में अक्षय भंडार से जितना लाभ लेना हो दिल खोलकर ले लो। संकोच मत करो। मेरा उससे कुछ घटने वाला नहीं है। प्रस्तुत कविता के द्वारा कवि ने लोकहितकारी पक्ष को उद्घाटित करते हुए प्रकृति को मनुष्य के विकास में सहायक के रूप में चित्रित किया है। प्रकृति सदैव से मनुष्य के विकास में तत्पर रही है। जन्म से मरण तक समुद्र ने मानव के विकास में योगदान किया है।

समुद्र भी प्रकृति का ही एक हिस्सा है, अंग है, संसाधन है। इस प्रकार समुद्र की मानव के जीवन के लिए क्या उपयोगिता है, इस सम्यक् प्रकाश डाला है। . इस कविता में समुद्र समाज का प्रतीक है। समुद्र जो प्रकृति का एक हिस्सा है वह मनुष्य को सब कुछ देना चाहता है क्योंकि वह अक्षय है। उसके पास अपार संपदा है जो मानव के लिए उपयोगी है।

. समुद्र का असली स्वरूप जितना मानव के लिए लाभप्रद है उतना चित्रयुक्त फ्रेम में भरा हुआ फोटो नहीं। सागर के गर्जन-तर्जन, गीत-नृत्य एवं आलोड़न में उसकी प्राकृतिक सुषमा छिपी हुई है। वह मानव के लिए उपयोगी और उत्साहवर्द्धक है। प्यासे सूरज यानि प्रतीक रूप में भूखे-प्यासे मनुष्य को चित्रित किया गया है। मनुष्य तो सदियों से भूखा-प्यासा है। उसकी आकांक्षाएँ, इच्छाएँ, असीमित हैं। वह स्वार्थ में अंधा होकर अपने हित की ही सोचता रहा है।

समुद्र मानव से लेने की अभिलाषा नहीं रखता है। वह उसे देने की कामना रखता है। मनुष्य तो सदैव से चंचल और आतुर प्रकृति का रहा है। इसीलिए उसकी समस्याएँ एवं इच्छाएँ भी अनंत हैं।

समुद्र ने सृजन-संहार के बीच यह मध्यस्थता का रूप रखा है। वह प्रकृति के नियमों को संतुलन रखने में सदैव तत्पर रहा है। मनुष्य और प्रकृति के बीच अटूट संबंध तो है ही किन्तु उसने नियमों के बीच अनुशासन को प्राथमिकता दिया है। कहने का भाव यह है कि प्रकृति अपने नियमों के व्यतिक्रमण को बर्दाश्त नहीं करती।

अतः समुद्र कविता मानव के उपभोक्तावादी स्वरूप का सूक्ष्म चित्रण करते हुए समुद्र रूपी समाज के विविध पक्षों का संतुलित एवं उदार पक्षों का उद्घाटन किया है। यह कविता उत्कृष्ट कविता के रूप में प्रस्तुत है।

प्रश्न 10.

‘किन्तु मेरी रेत पर जिस तरह दिखते हैं। उस तरह कभी नहीं दिखेंगे।’ पंक्तियों के माध्यम से कवि का क्या आशय है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ शीर्षक काव्य पाठ से उपरोक्त पंक्तियाँ ली गई हैं। इस कविता के कवि श्री सीताराम महापात्र जी हैं। उन्होंने अपनी कविता में छोटे-छोटे जीव-जंतुओं के प्रतीक प्रयोगों द्वारा मानव जीवन के विकास में उनकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला है।

कवि घोंघे को प्रस्तुत करते हुए सागर की पीड़ा को व्यक्त करता है। सागर मानव से प्रश्न करता है कि तुम किसलिए घोंघे को ले जाना चाहते हो? उनको ले जाकर कमीज का बटन बनाओगे या नाड़ा काटने का औजार या टेबुल पर उन्हें रखकर ड्राइंग रूप को सजाओगे? इन पंक्तियों में घोंघे के माध्यम से समुद्र की भीतर पल रहे जीव-जंतुओं की सार्थकता उसकी उपयोगिता पर कवि ने सत्य रूप से चिंतन किया है। जिस प्रकार इन जीवों के मृत स्वरूप से अपने स्वार्थ की पूर्ति में मानव लगा हुआ है यह यथोचित नहीं प्रतीत होता है। यह मानव का क्रूर पक्ष है जो कवि को अच्छा नहीं लगता। कवि घोंघे जैसे सागर में पल रहे अनेक जीव-जंतुओं की जीवंतता को तरजीह देते हुए उनके सजीव जीवन के लिए पक्ष लेते हुए अपना तर्क प्रस्तुत करता है।

समुद्र कहता है कि ये घोंघे जिस तरह मेरी रेत यानि मेरी छाती पर रेंगते हुए विचरण करते हैं उसमें जो सौंदर्य और आनंद मिलता है वह उनके मृत रूप से बने हुए वस्तुओं से नहीं। वे मृत रूप में अपने जीवंत स्वरूप का दर्शन नहीं दे सकते। यह उनके लिए कष्टकर नहीं बल्कि समद्र के लिए भी कष्टकर है यहाँ समद्र समाज के रूप में चित्रित हुआ है और समाज में पल रहे छोटे-छोटे जीव यानि दीनहीन बेबस, बेकस, लाचार लोगों के भी अस्तित्व का ख्याल रखना होगा।

कवि यहाँ अपनी काव्य प्रतिभा कर परिचय देते हुए समुद्र रूपी समाज और घोंघे सदृश समाज में पल रहे छोटे-छोटे असहाय और निर्बल लोगों के प्रति भी सहानुभूति और दर्द रखने की आवश्यकता है।

कवि अपने प्रतीक प्रयोगों द्वारा समाज के यथार्थ रूप का बड़ा ही स्पष्ट और स्वस्थ चित्र प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार ‘समुद्र’ कविता प्रतीकात्मक कविता है जो प्रकृति और मनुष्य के अटूट संबंधों को उद्घाटित तो करती ही है वह समाज में व्याप्त कुरीतियों, अव्यवस्थाओं के साथ मानव के अस्तित्व और उसकी स्वार्थपरक नीतियों का भी सम्यक् उद्घाटन किया है।

प्रश्न 11.

“जितना चाहो ले जाओ/फिर भी रहेगी बची देने की अभिलाषा’ से क्या अभिप्राय है ?

उत्तर-
‘समुद्र’ शीर्षक से प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक से ली गई है। इस कविता के कवि सीताराम महापात्र जी हैं। उन्होंने अपनी इस कविता में समुद्र के प्रतीक प्रयोगों द्वारा समाज में परिव्याप्त अनेक विसंगतियों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

यहाँ समुद्र मानव से कहता है कि जितना चाहो तुम ले जाओ। कहने का मूल भाव यह है कि समुद्र अक्षय भंडार है। उसके गर्भ में अनेक रत्नों का भंडार है। उसके गर्भ में अनेक जीव-जंत पल रहे हैं। वह कहता है कि अपनी तषित प्यास बुझाने के लिए भूख मिटाने के लिए अपनी क्षमता से भी अधिक जो चाहो, जितना चाहो मेरे अक्षय शेष से ले सकते हो।

यहाँ ‘समुद्र’ के उदार और विराट पक्ष को उद्घाटित किया गया है। समुद्र कहता है कि सब कुछ दे देने के बाद भी मेरी अभिलाषा अशेष रहेगी। मुझे किसी भी प्रकार की पीड़ा, वेदना या खेद नहीं होगा।
उपरोक्त काव्य पंक्तियों में कवि ने ‘समुद्र’ के रूप में इस विशाल मानव समाज की विराटता, उदारता और सहिष्णुता का समुचित उद्घाटन किया है।
समाज तो सदैव ही मानव के विकास में तत्पर रहा है। समाज ने मानव को जन्म से लेकर मरण तक सभी क्षेत्रों में विकास करने के लिए अपना सहयोग दिया।

समाज समुद्र रूपी अथाह अक्षय भंडार है। उसके पास अपरिमित बल है। उसके भीतर छोटे जीव से लेकर बड़े जीव सबका पालन-पोषण होता है। सबको संरक्षण मिलता है। इस प्रकार प्रकृति के एक रूप में मनुष्य का इस धरती पर अवतरित होना अपने में एक महत्वपूर्ण घटना है। समुद्र की अभिलाषा या आकांक्षा अनंत है। उसका व्यक्तित्व विराट है। उसके पास धन-संपदा का अकूत भंडार है। वह मानव के हित के लिए सदैव तत्पर और जागरूक रहा है।

प्रस्तुत कविता में समाज को समुद्र के रूप में चित्रित करते हुए उसकी उपयोगिता के बारे में प्रकाश डाला गया है। व्यक्ति के विकास में समाज का अत्यंत ही उदार पक्ष सदैव से चिंतित रहा है। मानव और समाज के बीच अटूट रिश्ता है। समाज व्यक्ति या मानव को उसके व्यक्तित्व के विकास में अपना अमूल्य योगदान देते हुए उससे कुछ भी अपेक्षा नहीं रखता। ठीक उसी प्रकार समुद्र की भी स्थिति है। दोनों की साम्यता के आधार पर कवि ने प्रकृति और पुरुष के बीच के अमिट संबंधों को चित्रित करते हुए समाज की महत्ता पर प्रकाश डाला है।

प्रश्न 12.

इस कविता के माध्यम से समुद्र के बारे में क्या जानकारी मिलती है ?

उत्तर-
‘समुद्र कविता’ महाकवि सीताराम महापात्र द्वारा लिखित एक उत्कृष्ट कविता है। इस कविता में ‘समुद्र’ समाज के लिए प्रतीक प्रयोग के रूप में प्रयुक्त हुआ है।

‘समुद्र’ कविता के द्वारा समुद्र की विराटता, उदारता और उसकी महत्ता पर कवि ने समुद्र को एक दानवीर उदार और लोकहितकारी रूप में चित्रित करते हुए कहा है कि ‘समुद्र’ अपनी मौन और अबूझ भाषा में बहुत कुछ कह देता है। वह ” अपनी चिंता नहीं करता। वह अपने बारे में कहता है कि मेरा कुछ भी नहीं घटता . या बिगड़ता है। हे मानव! तुम जितना चाहो मेरे उदर से या अक्षय भंडार से जितना रत्न या वस्तुएँ चाहो, नि:संकोच रूप में ले जा सकते हो, तुम कितना भी ले जाओगे फिर भी मेरी अभिलाषा तुम्हें देने से भरेगी नहीं बल्कि और उदार रूप में देने के लिए तत्पर रहेगी।

‘समुद्र मानव से कहता है कि तुम क्या चाहते हो ले जाना। क्या मेरे भीतर घोंघे सदृश जो छोटे-छोटे जीव जंतु, पल रहे हैं उन्हें पकड़कर ले जाना चाहते हो क्या? उन्हें ले जाकर तुम क्या बनाओगे? कमीज के बटन बनाओगे क्या? या नाड़ा काटने का औजार बनाओगे क्या? टेबुल पर सजाने के लिए इन घोंघों का उपयोग करना चाहते हो क्या? लेकिन एक बात याद रखो तुम? ये मेरी रेत पर जिस स्वच्छंदता और उन्मुक्तता के साथ विचरण करते हैं उस स्वरूप का तुम्हें दर्शन नहीं होगा। इन्हें जीवंत रूप में तुम देख नहीं पाओगे?

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